...وما الشمس🖤


 

الكاتب/ نجيب روفا سفري_ يكتب

💫💫💫💫💫💫💫💫

ومَا الشَّمسُ... 

إلا ضَوءُكِ الدَّافي...

فَدَعِيني... 

تحتَ شُعَاعِكِ غَافِيَا...!


وما السَّماءُ... 

إلا الذي ترتَدِينَهُ...

فَدَعِيني أُكَحِّلُ... 

عَينَيَّ كُحلاً صافِيَا...!


وما القمَرُ...

إلا شَجَنٌ مِنْ أنفاسِكِ...

تَحَدَّى الغَيمَ...

فأمسى عَلَيهِ طافِيا...!


وما الليلُ...

إلا حارِسُ نَومِكِ...

فإنْ صَحوتِ...

أمسَت سماؤهُ زاهِيَة...!


أنا العَليلُ...

وعِشقُكِ عِلَّتي...

فكيفَ يكونُ...

الدَّواءُ مِنكِ شَافِيَا...!


وما أنا...

إلا قصيدَةُ هَوىً...

أنتِ فيها...

الوَزنُ والقافِيَة....!


تَطَلَّعي بي...

حتى أرى...

مِنْ غيرِ عَينَيكِ...

أبقى ساهِيَا....!


وأنثُري الوَقتَ....

كما تَشائِينَ...

بِقُربِكِ اليَومُ....

يُساوي ثَانِيَة...! 


إنْ كانَ....

 مِلحُ البَحرِ...

لا يسقي أحداً...

لَمَّا إقتَرَبتِ...

صارَ غَذباً كَسَاقِيَة..!


إنْ لم تَسقِني....

بِوَعدٍ أو بِقُبلَةٍ...

أمسَت الدُّنيا كُلُّها...

بِلا  عافِيَة...!


إنْ لم تَضحَكي...

كَتَمَ الوردُ تُفَتُّحَهُ...

وصارَت الأمطارُ...

دَمعَا  شاكِياً...!


تَبَسَّمي...

مِنْ أجلِ...

أن يضحَكَ الكونُ...

فلا نراهُ باكِيَا...!


شفَتَاكِ خمري...!

وخمرُكِ عُمري...!

فلا تَحرمِي الكَأسَ...

مِنْ نبيذِ  الدَّالِيَة...!


التلال...المتن...لبنان


نجيب روفا سفري

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